उराँव समाज का सोहराई पर्व — पशु, प्रकृति और मानव का पवित्र संगम
भारत के आदिवासी समाजों में जितनी विविधता है, उतनी ही गहराई भी। इन्हीं में से एक प्रमुख समाज है — उराँव समाज, जिसकी संस्कृति प्रकृति, पशु और मनुष्य के बीच गहरे संबंध पर आधारित है।
उराँव लोगों का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र त्योहार है — सोहराई पर्व।
यह त्योहार मुख्य रूप से कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाता है, जब फसलें पक चुकी होती हैं और किसान कुछ समय के विश्राम में होता है। यह दिन पशुओं के प्रति कृतज्ञता, प्रेम और पूजा का दिन माना जाता है, क्योंकि कृषि और जीवन दोनों ही पशुओं के सहयोग से चलते हैं।
सोहराई की पूर्व संध्या — दीप, तेल और स्नेह का प्रतीक :-
सोहराई पर्व की शुरुआत अमावस्या की शाम से होती है।
इस दिन हर घर के लोग अपने पालतू पशुओं — जैसे बैल, गाय, भैंस, बकरी, सुअर आदि — को साफ-सुथरा करते हैं।
फिर उनके सींगों और शरीर पर तेल लगाया जाता है, ताकि उनकी चमक बनी रहे और कोई बीमारी न लगे।
उनके माथे पर सिंदूर और हल्दी का तिलक किया जाता है, जो शुभता और सुरक्षा का प्रतीक है।
यह दीपक पूरी रात जलता है — मानो पशु-देवता और घर के रक्षक को समर्पित हो।
यह इस बात का प्रतीक है कि “हमारा जीवन इन पशुओं के बिना अधूरा है, और उनके बिना हमारी खेती भी अधूरी है।”
सुबह का रंगीन उत्सव — “झाली मांगने” की परंपरा :-
सुबह होते ही गांव के सभी पुरुष और युवक “झाली मांगने” निकलते हैं।यह कोई साधारण मांगना नहीं होता — यह गांव के एकता, आनंद और हास्य से भरा सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है।
सब लोग विभिन्न वेशभूषा पहनते हैं — कोई जानवर की तरह सजता है, कोई किसी देवता या बूढ़े व्यक्ति का रूप लेता है।
उनके चेहरों पर रंग, मुखौटे और हँसी होती है।
हर घर के सामने पहुँचकर वे एक परंपरागत गीत गाते हैं —
🎵 “गड़ा गड़ा तना टुंकी दादा बीरी तेंग यो…” 🎵
यह गीत बजते ही पूरा गांव गूंज उठता है।
घर के लोग उन्हें “झाली” देते हैं — मतलब कुछ दाल, चावल, सब्जी, या जो भी उनके पास होता है।
मांगने वाले अपने ठेंगा (डंडा) से प्रतीकात्मक रूप से घर की चीज़ों को छूते हैं — यह किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि यह बुरी आत्माओं को दूर भगाने और आशीर्वाद प्राप्त करने का एक पारंपरिक तरीका है।
गोहार पूजा - पशु-देवता की आराधना :-
भोज के बाद दिन में किया जाता है — गौहर पूजा।“गौहर” शब्द दो भागों से बना है — “गौ” (गाय या पशु) और “हर” (भगवान)।
अर्थात यह पूजा उस भगवान की है जो पशुओं के रूप में हमारे जीवन में उपस्थित हैं।
उनके सामने तीन मिट्टी के टुकड़े रखे जाते हैं — ये धरती माता, जल और अन्न का प्रतीक हैं। घर को साल के पेड़ की डालियों से सजाया जाता है, जिससे वातावरण पवित्र और हराभरा लगता है।
पूजा के बाद पशुओं को मीठा चारा और हिड़िया (चावल से बनी शराब) खिलाई जाती है।
यह “आभार व्यक्त करने” का तरीका है — क्योंकि इन्हीं पशुओं की वजह से खेतों में हल चलता है, फसल उगती है और जीवन चलता है।
शाम का आनंद — पशु भोज और सामूहिक नृत्य :-
शाम के समय गांव के सभी लोग अपने पशुओं को बाहर निकालते हैं।हर कोई अपने पशु को प्यार से दाना खिलाता है, उनके सींगों पर फूल चढ़ाता है और माथे पर हाथ फेरकर आशीर्वाद मांगता है।
इसके बाद पूरा गांव नाच-गान में डूब जाता है। ढोल, मादल, तासा, नगाड़े की थाप पर महिलाएं और पुरुष एक साथ झूमते हैं। गीतों में प्रकृति की स्तुति होती है — धरती माता, जल, फसल, जानवर और देवता — सबका गुणगान।
यह दृश्य ऐसा होता है कि पूरा गांव मानो एक जीवित उत्सव में बदल जाता है —
हँसी, गीत, दीपक की रोशनी और ढोल की आवाज़ से पूरा वातावरण पवित्र और आनंदमय बन जाता है।
सोहराई पर्व का अर्थ और संदेश :-
सोहराई पर्व का सबसे गहरा अर्थ यह है कि —
> “मानव और पशु एक-दूसरे के पूरक हैं, और बिना प्रकृति के जीवन अधूरा है।”यह पर्व हमें सिखाता है कि हमें अपने पशुओं, धरती और पर्यावरण की देखभाल उतनी ही करनी चाहिए जितनी अपने परिवार की।
यह उराँव समाज की सादगी, एकता, मेहनत और पर्यावरण-प्रेम का जीवंत उदाहरण है।
झाली से भोज तक — गांव की एकता का प्रतीक :-
जब सभी घरों से झाली एकत्र हो जाती है, तब गांव के लोग मिलकर “भोजी” (सामूहिक भोजन) की तैयारी करते हैं।इस भोज में गांव का हर व्यक्ति — बच्चा, युवा, बुजुर्ग, पुरुष, महिला — सभी शामिल होते हैं।
जो भी झाली में मिला है — चावल, दाल, मांस, सब्जी — उससे एक बड़ा सामूहिक भोजन तैयार किया जाता है।
फिर सभी लोग एक साथ बैठकर खाते हैं, हँसते हैं, गीत गाते हैं।
इस भोजन का उद्देश्य केवल पेट भरना नहीं होता — यह एकता, समानता और बंधुत्व का प्रतीक है।
यह वह क्षण होता है जब गांव के हर व्यक्ति को एक साथ बैठकर ‘एक परिवार’ जैसा अनुभव होता है।
सोहराई पर्व केवल पूजा नहीं — यह संस्कारों, भावनाओं और जीवनदर्शन का उत्सव है।
यह पर्व उराँव समाज की उस गहरी सोच को दर्शाता है जो कहती है —
“जहाँ पशु खुश हैं, वहाँ धरती हरी है।
जहाँ धरती हरी है, वहाँ मनुष्य स्वस्थ है।”
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