..उराँव आदिवासी का समाज..
मैं रोशन टोप्पो, एक लेखक,
कवि, शोधकर्ता और कुँड़ुख़ प्राइड
(Kurukh Pride) वेबसाइट का संस्थापक हूँ। मेरा लेखन मुख्य रूप से
आदिवासी संस्कृति, भाषा और इतिहास पर केंद्रित है। हिंदी,
नागपुरी, सादरी और कुँड़ुख़ भाषाओं में लिखते
हुए, मैं अपने समाज की परंपराओं, संघर्षों
और पहचान को संरक्षित करने और आगे बढ़ाने का प्रयास करता हूँ।
मेरा उद्देश्य सिर्फ लिखना नहीं, बल्कि अपनी
भाषा और संस्कृति को जीवित रखना है। इसलिए मैं आदिवासी लोककथाओं, कहानियों, गीतों और ऐतिहासिक तथ्यों को संजोने और
प्रस्तुत करने का कार्य करता हूँ। The Tribal Podcast, Kurukh Pride जैसे यूट्यूब शोज़ के माध्यम से मैं उन अनसुनी कहानियों को दुनिया के
सामने लाने की कोशिश कर रहा हूँ, जो हमारे समुदाय की पहचान
को दर्शाती हैं।
समाज से तात्पर्य उस जीवन परिवेश से है, जिसमें व्यक्ति रहता है।
"समाज मात्र व्यक्तियों का समूह नहीं है, बल्कि वह उन व्यक्तियों के आपसी व्यवहार, संबंध और कार्यकलापों को भी उजागर करने वाला होता है।"
भारत का आदिवासी समाज भी पारस्परिक व्यवहार पर
आधारित समाज है। मेरे अनुसार—
"स्थानीय आदिम समूहों के किसी संग्रह को, जो एक सामान्य क्षेत्र में रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता हो, आदिवासी कहा जाता है।"
उराँव समाज का स्वरूप
भारत में स्थित उराँव समाज भी इसी परिभाषा में आता
है, क्योंकि पारंपरिक उराँव समाज ग्रामीण जीवनशैली में एक समान आचार-व्यवहार,
पर्व-त्योहार, भाषा, धर्म
और रहन-सहन का अनुसरण करता है। समय के साथ इसमें बदलाव भी अवश्य आए हैं, लेकिन उराँव समाज मूल रूप से अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बनाए हुए है।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले उराँव धीरे-धीरे
आधुनिक जीवनशैली में रच-बस रहे हैं, लेकिन ग्रामीण उराँव आज भी अपनी परंपरागत
प्रकृति से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। गाँवों में अब भी जीवन की शुरुआत
सूर्योदय से पहले होती है। मुर्गे की बाँग सुनते ही पुरुष और महिलाएँ जाग जाते हैं
और अपने-अपने कार्यों में लग जाते हैं।
उराँव पुरुषों का
दैनिक जीवन
उराँव पुरुष कृषि कार्य में संलग्न रहते हैं। वे
गोड़ा, मड़ुआ, उरद आदि फसलों की खेती करते हैं। सुबह होते
ही वे अपने खेतों की ओर निकल जाते हैं, जहाँ वे हल चलाते हैं,
फसल की देखभाल करते हैं और धान की कटाई-बुजाई करते हैं। दिनभर की
मेहनत के बाद वे घर लौटते हैं, स्नान करते हैं और भोजन ग्रहण
करते हैं।
यदि खेतों में अधिक काम न हो, तो वे घर के
किसी कोने में बैठकर मछली पकड़ने के जाल बुनते हैं या घरेलू उपकरणों की मरम्मत
करते हैं। उनके दैनिक जीवन में श्रम का विशेष स्थान है, जो
उनके आत्मनिर्भर और कर्मठ स्वभाव को दर्शाता है।
उराँव
महिलाओं का दैनिक जीवन
उराँव महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुबह जल्दी उठती
हैं और अपने कार्यों में लग जाती हैं। वे दिन की शुरुआत धान कूटने से करती हैं, जिसे या तो
भोजन के लिए उपयोग किया जाता है या बाजार में बेच दिया जाता है। वे घर की सफाई,
भोजन पकाने, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल
करने, गोबर से घर-आँगन लीपने जैसे कार्यों में संलग्न रहती
हैं।
जल भरने के लिए कुएँ या तालाब तक जाते समय उराँव
महिलाएँ अपने सिर पर भारी घड़े और बर्तनों को संतुलित करते हुए सहजता से चलती हैं, मानो यह उनके
जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हो। उनकी यह दक्षता और मेहनत उन्हें परिवार और समाज की
आधारशिला बनाती है।
शिक्षा
और युवाओं की भूमिका
उराँव समाज में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है।
किशोर अवस्था में लड़के स्कूल जाने लगते हैं या अपने पिता के साथ खेतों में काम
करना सीखते हैं। लड़कियाँ घर के काम-काज में दक्षता प्राप्त करती हैं। उनके लिए
घुमकड़िया नामक सामुदायिक शिक्षा प्रणाली भी महत्वपूर्ण रही है, जहाँ
बड़े-बुजुर्गों से पारंपरिक ज्ञान सीखा जाता है।
पड़हा-राज
व्यवस्था
उराँव समाज की पारंपरिक सामाजिक संरचना में पड़हा-राज
व्यवस्था का विशेष स्थान रहा है। हमरे पुरखों के अनुसार—
"उराँव आदिवासीयों में समाज कई क्षेत्रीय प्रभागों में बँटा होता है, जिसे 'पड़हा' कहा जाता है। एक पड़हा कई गाँवों का समूह होता है, जिसे पड़हा-राज कहा जाता है। इसमें पड़हा राजा रहता है, जबकि शेष गाँव प्रजा गाँव कहलाते हैं।"
यह व्यवस्था सामाजिक संगठन और न्याय व्यवस्था को
बनाए रखने में सहायक रही है।
गोत्र-प्रथा और टोटेम संस्कृति
उराँव समाज में गोत्र-प्रथा प्राचीन काल से चली आ
रही है। यह प्रणाली विवाह के सामाजिक नियमों को सुनिश्चित करने के लिए विकसित हुई
थी। उराँव अपने गोत्र को अपने पूर्वजों से जोड़ते हैं और इसे पवित्र मानते हैं।
उराँव समुदाय में टोटेम-प्रथा भी महत्वपूर्ण है, जहाँ प्रत्येक गोत्र किसी न किसी प्राकृतिक प्रतीक (पौधे, पशु आदि) से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए—
- कुजूर गोत्र— ऐसा माना जाता है कि एक समय कुजूर
नामक पौधे ने एक उराँव व्यक्ति को संकट से बचाया था, इसलिए
यह गोत्र अस्तित्व में आया।
- कच्छप गोत्र— एक कथा के अनुसार, एक उराँव व्यक्ति ने एक कछुए को पकड़ने के बाद छोड़ दिया क्योंकि
कछुए ने कहा था कि वह उसकी ही जाति का है।
- किस्पोट्टा गोत्र— इस गोत्र की उत्पत्ति एक सूअर से जुड़ी कथा से मानी जाती है।
उराँव समाज में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होता
है। यह प्रणाली उन्हें जातिगत शुद्धता बनाए रखने में सहायक होती है।
उराँव समाज की
विवाह व्यवस्था:
उराँव समाज में विवाह की विशेष परंपराएँ होती हैं। इनमें मुख्य रूप से घरोंजा विवाह, धुमा विवाह, संगठित विवाह और भागकर विवाह शामिल हैं। गोत्र-विवाह निषेध रहता है, यानी एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जाता। विवाह से पहले डाली-चावल की रस्म होती है, जिसमें वर-पक्ष वधू-पक्ष को विवाह के लिए स्वीकृति देता है।
शादी के बाद दंपति को कुछ समय के लिए मायके में रहना होता है, जिसे धुमा विवाह कहा जाता है। यदि किसी कारणवश युवक-युवती भागकर शादी कर लेते हैं, तो समाज उन्हें अपनाने के लिए एक औपचारिक सजा-धजा प्रक्रिया से गुजारता है, जिसमें समाज की स्वीकृति ली जाती है।
उराँव समाज का धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
उराँव समाज मुख्य रूप से प्रकृति पूजक है। वे धरती
बाबा, करम देवता, सरना आयो और धर्मेश बाबा की पूजा करते हैं। इनके प्रमुख पर्व-त्योहारों में
करम, खाद्दी (सरहुल), मागे
परब, सोहराय आदि शामिल हैं।
आदि धर्म उराँवों का पारंपरिक धर्म है, जिसमें प्रकृति की पूजा की जाती है। हालांकि, समय के साथ कुछ उराँव ईसाई धर्म को भी अपनाने लगे हैं, लेकिन उनकी सांस्कृतिक जड़ें अब भी मजबूत बनी हुई हैं।
उराँव समाज की आर्थिक व्यवस्था
उराँव समुदाय की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर
आधारित रही है। वे मुख्य रूप से धान, मड़ुआ, गोड़ा,
उरद, मक्का आदि की खेती करते हैं। इसके अलावा,
जंगलों से प्राप्त लकड़ी, महुआ, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, साल
पत्ता आदि उनकी आय का स्रोत होता है। आधुनिक समय में उराँव समाज के लोग सरकारी और
निजी क्षेत्रों में भी नौकरी करने लगे हैं।
समाज में परिवर्तन और चुनौतियाँ
समय के साथ उराँव समाज में बदलाव आया है। शिक्षा, रोजगार और
शहरीकरण के प्रभाव से उनकी पारंपरिक जीवनशैली में बदलाव हो रहा है। हालांकि,
अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी पारंपरिक सामाजिक संरचना और
रीति-रिवाज मजबूत हैं।
लेकिन, उनकी भाषा और संस्कृति पर बाहरी प्रभाव बढ़ता जा रहा है। कई युवा अब अपनी मातृभाषा कुँड़ुख़ (Kurukh) की जगह अन्य भाषाएँ बोलने लगे हैं, जिससे इसकी अस्तित्व को खतरा हो सकता है। इसके संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।
आधुनिक परिवर्तन और समाज की दिशा
समय के साथ उराँव समाज में कई परिवर्तन आए हैं।
शहरीकरण और आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से उराँव समाज की जीवनशैली में बदलाव हुए हैं।
पहले जो समाज पूरी तरह से कृषि और पारंपरिक व्यवस्था पर निर्भर था, अब उसमें नौकरी,
व्यवसाय और आधुनिक जीवनशैली का समावेश हो गया है।
हालाँकि, उराँव समुदाय आज भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा हुआ है। उनकी भाषा, त्योहार, संगीत, और सामाजिक परंपराएँ अब भी उन्हें उनकी पहचान से जोड़े हुए हैं। पारंपरिक पड़हा-राज व्यवस्था अब प्रशासनिक प्रभावों से बदल रही है, लेकिन सामाजिक संबंधों और आपसी सहयोग की भावना अब भी कायम है।
उराँव समाज झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार और बंगाल के प्रमुख जनजातीय समुदायों में से एक है। अपनी मजबूत सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक परंपराओं और प्राकृतिक जीवनशैली के कारण यह समाज विशिष्ट पहचान रखता है। हालाँकि, आधुनिकता के प्रभाव से कई बदलाव आ रहे हैं, लेकिन अपनी परंपराओं को बचाए रखना इनके अस्तित्व और पहचान के लिए आवश्यक है।
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