जय धरम, मैं रोशन टोप्पो, आदिवासी संस्कृति और परंपराओं के प्रति गहरी रुचि रखने वाला एक लेखक और शोधकर्ता हूँ। मेरी लेखनी का उद्देश्य हमारे समाज की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करना और इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाना है। आज मैं आपसे एक विशेष पर्व, सोहराय, की कहानी साझा करने जा रहा हूँ, जो न केवल हमारे आदिवासी समुदाय की पहचान है, बल्कि हमारे रीति-रिवाजों और मान्यताओं का भी प्रतीक है।
इस ब्लॉग में, हम जानेंगे कि कैसे यह पर्व हमारी परंपराओं, धर्म और पशु प्रेम के साथ जुड़ा हुआ है। सोहराय पर्व के माध्यम से हम उस साहसिकता और धार्मिकता को समझेंगे जो हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन में उतारी। इस यात्रा में आपका स्वागत है, जहाँ हम एक अद्भुत कहानी के साथ-साथ अपने आदिवासी संस्कृति की जड़ों को खोजने का प्रयास करेंगे।
उरांव आदिवासी सोहराय पर्व की कहानी
किसी समय की बात है, एक राज्य में एक अत्याचारी राजा शासन करता था। उस अत्याचारी से बचने के लिए प्रजा को एक दिन चावल, दाल, तेल और खाने-पीने का अन्य सामान लेकर उसके पास जाना पड़ता था। राजदरबार में एक राक्षस रहता था, जो सामान लाने वाले व्यक्ति को अपना आहार बना लेता था। इससे प्रजा बेहद परेशान हो चुकी थी। बचाव के लिए लोगों ने धर्मेश बाबा से गुहार लगाई।
धर्मेश बाबा ने एक बैल (आदिया) के साथ एक युवा रूप धारण किया और गांव में घूमते हुए कहा, "कोई मुझे बैल चराने के लिए धनगर के रूप में रख लो।"
गांव में किसी ने उसकी बात नहीं मानी, पर एक बूढ़ी महिला, जो अकेली रहती थी, उसे अपने घर में रखने को तैयार हुई। उसने कहा, "मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं तुम्हें कैसे रख सकती हूं?"
लड़के ने जवाब दिया, "मां, जो आप खाएंगी, उसे हम बांट कर खा लेंगे। बस रहने की जगह दे दीजिए।"
बूढ़ी महिला ने उसके पैर धोए और बैल के पैर भी धोकर उसे जगह दी। वह रोज बैल की सेवा करती और घर में समृद्धि बढ़ने लगी। दोनों हंसी-खुशी रहने लगे।
एक दिन बूढ़ी महिला सुबह-सुबह रोने लगी। उसने बताया कि आज उसका नंबर राजा के पास जाने का है, जहां राक्षस उसकी जान ले लेगा। यह सुनकर लड़का बोला, "मां, आप चिंता मत कीजिए। आज मैं सामान लेकर जाऊंगा।"
बूढ़ी महिला ने उसे समझाया कि वह छोटा है और उसे अपनी जान नहीं गंवानी चाहिए। पर लड़के ने अपनी जिद से उसे मना लिया।
लड़का धर्मेश बाबा के रूप में राजा के दरबार पहुंचा और राक्षस को पटक-पटक कर मार दिया। यह खबर राज्य में फैल गई, जिससे सभी बहुत खुश हुए। इधर, बूढ़ी महिला ने जब गोहारी (गोहांड/गोहर) की सफाई की तो वह चमक उठी। यह दृश्य पूरे गांव में सुख-समृद्धि का प्रतीक बना और कार्तिक अमावस्या के दिन दीया जलाकर इसे मनाया जाने लगा, जिसे बाद में 'सोहराय' नाम दिया गया।
इस दिन से लोगों ने गाय-बैल की सेवा को विशेष महत्व देना शुरू किया और उन्हें सजाकर उत्सव मनाया। गोहारी पूजा के पश्चात गाय-बैल को दाल की खिचड़ी अर्पित की जाने लगी। यह पर्व पशु प्रेम का प्रतीक बन गया।
सोहराय पर्व के विशेष चरण:
1. पहला दिन - गांवों में धान की फसल की सुरक्षा के लिए कीट पतंगों को भगाने की परंपरा होती है। सुबह चार बजे से बच्चे गाजे-बाजे के साथ प्रभात फेरी निकालते हैं और "जा भोसड़ी, जा" जैसे नारों से कीटों को भगाते हैं। घरों से लकड़ियां एकत्र कर गांव के किनारे जलाकर नकारात्मकता का दाह संस्कार किया जाता है। चरवाहे लोग जंगल से बांस के तीर, लाठी आदि सेकते हैं और उन्हें घर की सुरक्षा के लिए रखते हैं।
2. दूसरा दिन - गोहारी पूजा में लाल मुर्गा बलि देकर प्रसाद बनाते हैं और उसे परिवार में बांटते हैं। दोपहर को सभी लोग नदी या जंगल में भोजन बनाकर एक-दूसरे के साथ प्रेम से खाते हैं। इस भोजन को "दशा मासा खा" कहते हैं।
3. तीसरा दिन - गांव समाज में 'कार्तिक जतरा' मनाया जाता है, जिसे सोहराय जतरा कहते हैं।
शुभ सोहराय ❤️❤️❤️❤️
👏🏼👏🏼👏🏼 जय जोहार 👏🏼👏🏼👏🏼
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