जतरा: उराँव समाज की सांस्कृतिक धरोहर || MUDMA JATRA RANCHI OF ORAON TRIBE FESTIVAL

 जतरा: उराँव समाज की सांस्कृतिक धरोहर


तरा, उराँव समाज की सांस्कृतिक पहचान का एक जीवंत प्रतीक है। यह आयोजन, जिसमें पारंपरिक नृत्य, संगीत और धार्मिक रिवाज शामिल होते हैं, इस समाज के लोगों के लिए एक साथ आने और अपने जीवन के अनुभव साझा करने का अवसर प्रदान करता है। जतरा सिर्फ एक त्योहार नहीं है, यह उन भावनाओं और परंपराओं का संगम है जो उराँव समाज की गहरी जड़ों से जुड़ी हैं। बरसात खत्म होने के बाद, जब लोग फसल के काम से थोड़े मुक्त होते हैं, तब गाँवों में जतरा का आयोजन शुरू होता है। इस आयोजन में गाँव के लोग अपने-अपने चिन्हों के साथ मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं और पारंपरिक गीतों की धुन पर थिरकते हैं। जतरा उराँव समाज के लोगों के लिए न केवल एक सांस्कृतिक त्योहार है, बल्कि यह उनके सामुदायिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर अपने दुख-दर्द और खुशियों का साझा करते हैं।


जतरा का आयोजन और परंपराएँ :

जतरा की शुरुआत एक विशेष पूजा से होती है जिसे "चंडी की पूजा" कहा जाता है। इस पूजा में एक मोटा और ऊँचा खूँटा गाड़ा जाता है, जिसे पहले अच्छे से धोकर चावल और सफेद मिट्टी से रंगा जाता है। यह खूँटा चंडी की प्रतीक के रूप में होता है और इसे सजाकर गाँव के लोग उसकी पूजा करते हैं। पूजा के दौरान पहान (पुजारी) और महतो (गाँव के प्रमुख) मिलकर चंडी से प्रार्थना करते हैं कि जतरा का आयोजन शांति और सुख-समृद्धि के साथ संपन्न हो। वे मुर्गे की बलि चढ़ाकर चंडी से आशीर्वाद मांगते हैं, ताकि किसी भी तरह की अनहोनी घटना से बचा जा सके। चंडी की पूजा से ही जतरा की शुभ शुरुआत होती है, और इसे बहुत ही धार्मिक भावना के साथ संपन्न किया जाता है। उराँव समाज में यह पूजा एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया मानी जाती है और इसका आयोजन गाँव के हर व्यक्ति के लिए खास होता है।


पिंजरा डांग: दीप की रक्षक ज्योति :

जतरा में एक अनूठी परंपरा है "पिंजरा डांग" की। यह आयोजन के दौरान खड़ा किया जाने वाला एक लंबा बाँस होता है, जिसके ऊपर एक पिंजरा बाँधकर दीप जलाया जाता है। इस दीप को जलाना शुभ माना जाता है और यह आयोजन के सफल और शांतिपूर्ण रूप से संपन्न होने का प्रतीक है। अगर दीप जलता रहता है, तो इसे आयोजन की सफलता और चंडी की कृपा का संकेत माना जाता है। लेकिन अगर दीप बुझ जाता है, तो यह एक अशुभ संकेत होता है। इस स्थिति में समाज के लोग इसे तुरंत तुको-दिधिया गाँव वापस भेजते हैं, ताकि किसी भी अनहोनी को टाला जा सके। पिंजरा डांग की यह परंपरा जतरा में शामिल हर व्यक्ति के मन में गहरा विश्वास जगाती है कि चंडी की कृपा से सब कुछ ठीक होगा। यह परंपरा उराँव समाज की आस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है।


मुड़मा जतरा: उराँव समाज की न्यायिक धरोहर :

मुड़मा जतरा उराँव समाज के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण मेलों में से एक है। यह रांची-लोहरदगा पक्की सड़क पर, रांची से लगभग 20 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। मुड़मा जतरा का एक ऐतिहासिक महत्व भी है, क्योंकि यह उराँव समाज के लिए एक न्यायिक स्थल के रूप में जाना जाता था। पहले के समय में, जब गाँवों में आपसी झगड़े या विवाद होते थे, तो उनका समाधान पहले गाँव के पंच करते थे। अगर पंच कोई निर्णय न ले पाते, तो मामला पड़हा पंचायत में जाता था। और अगर वहाँ भी विवाद का निपटारा नहीं होता, तो उसे राजी पड़हा पंचायत मुड़मा में रखा जाता था। यह पंचायत उराँव समाज के लिए सबसे उच्च न्यायिक संस्था थी, जहाँ सभी प्रमुख गाँवों के प्रतिनिधि मिलकर निर्णय लेते थे। मुड़मा जतरा का यह न्यायिक पहलू आज भी उराँव समाज के लोगों के लिए गर्व और आदर का विषय है, और यह जतरा उनके न्याय और परंपरा की गवाही देता है।


नृत्य और संगीत: जतरा का दिल :

जतरा के दौरान नृत्य और संगीत का विशेष महत्व होता है। यह आयोजन दोपहर से शुरू होता है, जब विभिन्न गाँवों के नृत्य दल अपने पारंपरिक वस्त्रों और वाद्ययंत्रों के साथ आते हैं। वे समूहों में नृत्य करते हैं और माँदर, नगाड़ा, और ढोलक की धुन पर थिरकते हैं। नृत्य के दौरान हर गाँव के लोग अपने-अपने झंडे और चिन्हों के साथ जतरा टाँड़ की परिक्रमा करते हैं, जिसे 'बोत चढ़ना' कहा जाता है। यह बहुत ही अनुशासनपूर्वक किया जाता है, और हर गाँव को एक निश्चित समय और क्रम का पालन करना होता है। नृत्य के माध्यम से वे अपनी संस्कृति और परंपराओं को जीवंत करते हैं। ग्रामीण जीवन की सादगी और उत्साह इन नृत्यों में साफ झलकता है। यह नृत्य और संगीत ही है, जो जतरा के माहौल को जीवंत और आनंदमय बनाता है, और गाँव के लोग इस उत्सव में पूरे जोश और उमंग के साथ भाग लेते हैं।


सांप्रदायिक सौहार्द्र और मिलजुलकर रहने का संदेश  :

मुड़मा जतरा में उराँव समाज के अलावा आसपास के अन्य समुदायों का भी योगदान होता है। हालांकि, मेले के पास स्थित मुसलमानों के कब्र स्थान के कारण कभी-कभी विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, लेकिन प्रशासन और स्थानीय समाज की सूझबूझ से इन मुद्दों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाता है। मेले के दौरान पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी इस बात का ध्यान रखते हैं कि दोनों समुदायों के बीच शांति और सौहार्द्र बना रहे। उराँव समाज के लोग भी इस बात की कोशिश करते हैं कि उनके आयोजन में किसी तरह की अशांति न हो। इस तरह, मुड़मा जतरा न केवल एक धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि यह सांप्रदायिक एकता और भाईचारे का भी प्रतीक है। यह समाज के लोगों को मिलजुलकर रहने और एक-दूसरे के प्रति सम्मान और समझदारी का संदेश देता है।


जतरा का समापन: एक नई शुरुआत की उम्मीद :

जतरा के दूसरे दिन मेला धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। लोग अपने-अपने गाँवों की ओर लौटने लगते हैं, लेकिन उनके मन में जतरा की खुशियाँ और यादें साथ चलती हैं। मेले के समाप्त होने के बाद, प्रशासन और पुलिस बल भी अपनी व्यवस्था समेटते हैं और इलाके में शांति बहाल हो जाती है। ग्रामीण लोग अपने-अपने खेतों की ओर लौट जाते हैं और आने वाले फसल सीजन की तैयारी में जुट जाते हैं। जतरा के बाद का यह समय उनके लिए नई उम्मीदें लेकर आता है। मेले से वापस लौटते समय, ज्यादातर लोग गन्ने के डंठल अपने साथ लेकर जाते हैं, जो जतरा से जुड़ी एक छोटी लेकिन खास निशानी मानी जाती है। यह गन्ना उनके लिए जतरा की मिठास और उसके सुखद अनुभवों का प्रतीक होता है। इस तरह, जतरा का समापन न केवल एक बड़े आयोजन का अंत है, बल्कि यह एक नई शुरुआत की उम्मीद और आने वाले बेहतर समय की तैयारी का संकेत भी है।


निष्कर्ष: एक सांस्कृतिक धरोहर की विरासत :

जतरा उराँव समाज के लिए सिर्फ एक मेला या उत्सव नहीं है, यह उनके जीवन और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह समाज के लोगों के लिए अपने इतिहास, परंपराओं और रीति-रिवाजों को जीवित रखने का एक माध्यम है। यह आयोजन न केवल मनोरंजन का अवसर है, बल्कि यह समाज के लोगों के लिए आपसी मिलन, संवाद और एकता का भी प्रतीक है। समय के साथ जतरा की महत्ता और बढ़ती जा रही है, और यह उराँव समाज के युवाओं के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने का एक जरिया बनता जा रहा है। आज भी, जतरा में वही पुरानी परंपराओं की झलक दिखाई देती है, जो सदियों से इस समाज की पहचान रही हैं। यह उराँव समाज की सांस्कृतिक धरोहर है, जो उनके इतिहास की कहानियों और उनकी सांस्कृतिक धड़कनों को जीवित रखती है, और आने वाली पीढ़ियों को उनकी समृद्ध विरासत से जोड़ती है।

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