The Changing Form of Sarna Dharma: A Self-Reflection | सरना धर्म का बदलता स्वरूप: एक आत्ममंथन | Roshan Toppo


मैं रोशन टोप्पो, ओड़िशा के एक आदिवासी समाज से जुड़ा एक सामान्य इंसान, अपने दिल से निकली बात आप सभी से साझा करना चाहता हूँ। हाल ही में मुझे सुंदरगढ़ ज़िले , लाठिकटा ब्लॉक के अंतर्गत बढ़ दलकी पंचायत के मूसापाली लेटाटोला गाँव में एक नए सरना धर्म स्थल को देखने का अवसर मिला। वहाँ जाने का मकसद था अपने लोगों की एकता और धार्मिक चेतना को समझना, लेकिन जो देखा उसने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिए।

🔻 क्या देखा मैंने?

उस स्थल पर एक सुंदर रंग-बिरंगी पेंटिंग बनी थी — एक वृद्ध महिला, जिनके सिर के पीछे एक तेज़ (आभा मंडल) बना था, मानो वह कोई देवी हों। उनके पास एक युवक हाथ जोड़कर झुका हुआ था, जैसे वह उनका भक्त हो। जिसे आजकल कुछ लोग “सर्ना आयो” कहकर प्रचारित कर रहे हैं। एक और तरफ लाल-सफेद झंडा लहराता दिखाई दे रहा था। पृष्ठभूमि में नदी, पेड़, पहाड़ और पक्षियों के साथ प्रकृति का मनमोहक दृश्य था। साथ ही दीवार पर एक गोल प्रतीक चिह्न (डंडा काटना) भी बना था । 

पहली नज़र में यह दृश्य बहुत आकर्षक लगा। रंग, रचना, भाव — सब कुछ सुंदर था। लेकिन फिर मन के भीतर आदिवासी चेतना ने सवाल उठाया — “क्या यही हमारा असली धर्म है?”

🔻 हमारा धर्म कैसा रहा है?

हम आदिवासी सदियों से प्रकृति के पूजक रहे हैं। हमारा देवता कोई मूर्ति नहीं, कोई तस्वीर नहीं — बल्कि वह सूरज है जो सुबह हमें ऊर्जा देता है, वह नदी है जो जीवन देती है, वह जंगल है जो हमें आश्रय और अन्न देता है।

हमने कभी किसी इंसान को ईश्वर बनाकर उसकी पूजा नहीं की। हमने कभी मंदिर नहीं बनाए, हमने कभी मूर्ति नहीं गढ़ी। हमारे पूजन स्थल सरना, जाहेर, देवरी, सासन रहे हैं — खुले आसमान के नीचे, पेड़ों की छाँव में। हमारे पुजारी पाहन, देऊरी, नैके होते हैं, जिन्हें हम अपने बीच से चुनते हैं — कोई भगवान नहीं मानते।

लेकिन आज कुछ लोग सरना धर्म के नाम पर नई परंपराएँ बना रहे हैं — जिसमें चित्रों, पेंटिंगों और प्रतीकों के ज़रिए धर्म को एक नया स्वरूप दिया जा रहा है। खुद को "प्राकृतिक पूजक" बताकर वे कुछ ऐसा बना रहे हैं जो हमारी मूल संस्कृति से दूर होता जा रहा है।

🔻 बदलाव या भ्रम?

मेरा सबसे बड़ा दुख यह था कि कुछ परिवार जो पहले “आदि धर्म” से जुड़े थे, अब इस नए "सरना धर्म" को अपनाने लगे हैं। वे सोचते हैं कि वे अपने मूल धर्म की ओर लौट रहे हैं, लेकिन क्या यह वाकई में वही सरना धर्म है जिसे हमारे पुरखे मानते थे?

अगर हम व्यक्ति विशेष को ईश्वर मानने लगेंगे, चित्रों और प्रतीकों की पूजा करने लगेंगे, तो हम भी उन धर्मों जैसे बन जाएँगे जो हमने कभी नहीं अपनाए — और जिसकी आज़ादी के लिए हमारे पुरखों ने संघर्ष किया।


🔻 भविष्य की चिंता :- 

मुझे डर है कि इस तरह के बदलाव से हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भ्रमित होंगी। वे जान ही नहीं पाएँगी कि असली आदिवासी धर्म क्या था। वे सोचेंगी कि फोटो लगाना, चित्रों की पूजा करना ही सर्ना धर्म है। और फिर धीरे-धीरे हम अपने मूल ज्ञान, परंपरा और पहचान को खो बैठेंगे।

यह न सिर्फ धार्मिक पहचान का संकट है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक अस्तित्व पर भी एक सवाल है।

🔻 मेरा निवेदन :- 

मैं, रोशन टोप्पो, सभी साथियों से एक विनम्र अपील करता हूँ —
बदलाव ज़रूरी है, लेकिन पहचान खोकर नहीं।
आधुनिकता ज़रूरी है, लेकिन परंपरा को त्याग कर नहीं।

हमें अपने असली सरना धर्म को समझने और समझाने की ज़रूरत है। जहाँ पूजा है तो केवल प्रकृति की, जहाँ सम्मान है तो अपने पूर्वजों और समाज का, न कि किसी मूर्त या चित्र रूपी "देवता" का।

हमारे धर्म को कोई चिह्न या ध्वज नहीं चाहिए — हमारा धर्म है धरती, जल, वन और जीवन के प्रति प्रेम।

आपसे यही उम्मीद करता हूँ कि इस बात को गंभीरता से लें, और अपने समाज को गहराई से जानें — ताकि हम खुद को, अपने बच्चों को और अपनी अगली पीढ़ियों को सही मार्ग दिखा सकें।

धन्यवाद।
– रोशन टोप्पो

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