मिट्टी के घर में शिक्षा का दीपक: आदिवासी शिक्षिका मलती मुर्मू की प्रेरणादायक कहानी
पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले की आदिवासी मलती मुर्मू ने अपने मिट्टी के घर को 45 से अधिक गांव के बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल में बदल दिया है। अपने जिले के जिलींगसेरेंग गाँव में नवविवाहिता मलती ने देखा कि स्थानीय सरकारी स्कूल आदर्श नहीं चल रहा था – दूरी, गरीबी और जागरूकता की कमी से बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। तब उन्होंने कुछ किताबें और ब्लैकबोर्ड के साथ एक पेड़ के नीचे पढ़ाना शुरू किया। आज पांच साल बाद, यह छोटा सा प्रयास एक दो-कक्षों की माटी-टीले की पाठशाला बन गया है, जहाँ सुबह-सुबह 45 बच्चे संथाली (ओल-चिकी लिपि), बंगाली और अंग्रेजी सीखते हैं।
मां-भाषा में पढ़ाई: मलती ने सारी पढ़ाई बच्चों की मातृभाषा संथाली (ओल-चिकी) में शुरू की, जिससे आदिवासी बच्चे उत्साह से सीख रहे हैं। सरकारी स्कूल के पास होने के बावजूद गाँववालों ने इसी व्यक्तिगत तरीके से पढ़ाई को तरजीह दी, क्योंकि यह संस्कृति-संवेदनशील और समझने में आसान था। मलती बिना सरकारी वेतन या सहायता के पढ़ाती हैं – उनके पास न कोई स्कूल बोर्ड है, न अतिरिक्त शिक्षक, न सरकारी फंड। इसके बावजूद, हर सुबह चालीस-पैंतालीस विद्यार्थी उनके भरोसे पढ़ने आते हैं, और कक्षाओं में उत्सुकता दिखाते हैं।
उनकी चुनौतियाँ और सहयोग: मलती को शुरुआत में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा – गांव वालों के संदेह और कहकहों के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। घर में दो छोटे बच्चों की देखभाल करते हुए भी उन्होंने पढ़ाई रोकी नहीं। पति बांका मुर्मू, जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, मलती के सबसे बड़े सहायक बन गए। उन्होंने गांववासियों के साथ मिलकर मिट्टी-पत्थर से दो कमरों का एक ढांचा तैयार किया जहां पढ़ाई हो सके। गांव वालों ने भी किताबें और बैठने की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी मदद दी। सोशल मीडिया पर मलती की कहानी फैली तो एक गैर-सरकारी संगठन ने उनके लिए शिक्षण सामग्री और आर्थिक सहायता का भरोसा भी दिया।
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कम संसाधन, अधिक समर्पण: मलती के पास आधुनिक सुविधा नहीं है (ना कंप्यूटर, ना स्मार्टफोन), पर उनका जज्बा सशक्त है।
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शिक्षा से बदलाव: उन्होंने बच्चों को परंपरागत रूप से पढ़ाने के साथ आधुनिक विचार भी दिए – वैज्ञानिक बातें बताकर अंधविश्वास से लड़ाया।
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परिवार और समुदाय का समर्थन: परिवार और गांव ने मिलकर उनके इस कदम को जीवनदान दिया है।
मलती मुर्मू की इस पहल का लाभ अब सिर्फ उनके गांव तक सीमित नहीं रहा। अन्य आसपास के गांवों के बच्चे भी सीखने आने लगे हैं। शिक्षा-विद चंद्रशेखर कुंडू जैसे विशेषज्ञ भी उनके प्रयासों को सराह रहे हैं और केंद्र की सुविधाएँ बढ़ाने का वादा कर चुके हैं। मलती की वजह से अब “शिक्षा का प्रकाश” गाँव के उन कोनों तक फैल रहा है, जहां पहले कोई शैक्षिक पहल नहीं होती थी।
महत्व और प्रसार: मलती मुर्मू की कहानी आदिवासी शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण है। अनुसंधान बताते हैं कि आदिवासी इलाकों में मातृभाषा में पढ़ाई से बच्चों की रूचि और उपलब्धि बढ़ती है। असल में, UNESCO ने 2024 में बहुभाषी शिक्षा को महत्व दिया है, और संस्थागत प्रयासों (जैसे टाटा स्टील फाउंडेशन) द्वारा संथाली भाषा व ओल-चिकी पढ़ाने के 500 से अधिक केंद्र स्थापित किए जा चुके हैं। स्थानीय स्तर पर भी आदिवासी महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है – UNESCO की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण विकास परियोजनाओं के 58% लाभार्थी महिलाएं होती हैं, जो महिला सशक्तिकरण पर जोर दर्शाता है। मलती की जैसी पहलों से यह साबित होता है कि जब महिलाएं समुदाय में शिक्षण के लिए कदम बढ़ाती हैं, तो पूरे समाज में बदलाव की लहर दौड़ जाती है।
मलती मुर्मू की कथा बताती है कि संकल्प और लगन से किसी भी कमी को मात दी जा सकती है। मिट्टी की कोठी से शुरू हुआ उनका स्कूल आज आदिवासी शिक्षा में रोशनी बनकर उभरा है। यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे एक आदिवासी महिला ने अपनी जमीनी पहलकदमी से बच्चों को उज्जवल भविष्य की ओर आगे बढ़ाया – और यही आदिवासी शिक्षा एवं महिला सशक्तिकरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी को रेखांकित करता है।
स्रोत: मलती मुर्मू से संबंधित विवरण के लिए हाल के समाचार लेखों को उद्धृत किया गया है। UNESCO और प्रायोजित पहलों की जानकारी के लिए आधिकारिक सामग्रियों का संदर्भ दिया गया है। रोशन टोप्पो की भूमिका के बारे में भरोसेमंद समाचार स्रोत नहीं मिले, इसलिए वह भाग विश्लेषण पर आधारित है।
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