ख़द्दी परब: नवजीवन का उत्सव और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता
ख़द्द यानी बच्चा!
जंगल में जन्मे नये पौधे की तरह, नये जीवन की मासूमियत लिए हुए, हर चीज़ का नया अनुभव समेटे हुए। यह नयापन ही नवजीवन का प्रतीक है और इसी जीवन के उत्सव व संरक्षण की प्रतिबद्धता में ‘ख़द्दी’ परब मनाया जाता है।
संस्कृति और परंपरा का संगम
राज्य में ‘राजी सरहुल’ का उल्लासमय माहौल है। यह त्योहार केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जनसमूह पारंपरिक वेशभूषा में सजे-संवरे, अपने ढोल-मांदर के साथ सांस्कृतिक जुलूस निकालते हैं। यह जुलूस सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रोटेस्ट भी है, जहाँ आदिवासी अपने अस्तित्व और परंपराओं को बचाए रखने की घोषणा करते हैं। गाँव हो या शहर, हर जगह आदिवासी समुदाय इस पर्व में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
चालाटोंका का अनूठा अनुष्ठान
चालाटोंका में एक विशेष परंपरा निभाई जाती है—‘ख़ेख़ेल बेन्जा’ यानी धरती-ब्याह। यह अनुष्ठान धरती माता के साथ एक पवित्र बंधन को दर्शाता है। इस दौरान बारिश के लिए प्रार्थना की जाती है ताकि धरती उपजाऊ बनी रहे और नवजीवन पनपता रहे।
बारिश की कामना के बाद, पहान (पुजारी) श्रद्धालुओं के बीच फूल बाँटते हैं, जो आशीर्वाद और समृद्धि का प्रतीक होते हैं। इसके बाद जनसमूह खोंड़हा (पारंपरिक टोली) के साथ नाचते-गाते हुए पूरे उल्लास के साथ निकलते हैं। यह जुलूस शान्तिपूर्वक पूरे मार्ग से गुजरकर, अपनी सांस्कृतिक पहचान को और मजबूत करते हुए, अंत में अपने-अपने घरों की ओर लौट जाता है।
नवजीवन का संदेश
ख़द्दी परब केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि आदिवासी समाज के नवजीवन, संरक्षण और सामूहिकता का प्रतीक है। यह त्योहार हमें बताता है कि जैसे नये जन्मे बच्चे को संभालने की जरूरत होती है, वैसे ही प्रकृति, परंपराओं और समाज को भी सहेजने की जिम्मेदारी हमारी है। यही संदेश आदिवासी समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाता आया है और आगे भी बढ़ाता रहेगा।
"नवजीवन को अपनाइए, प्रकृति को बचाइए, संस्कृति को सहेजिए!" 🌿✨
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