उराँव जनजाति का इतिहास
भारत भर में जनजातियों का इतिहास अतीत
के गर्भ में मिलता है। यह भी एक सच्चाई है कि जनजातियाँ, देश भर में जंगलों और पहाड़ों में बसी हैं। महली लीविन्स
तिर्की के अनुसार- “आदिवासी जंगलों और पहाड़ों में बसे हैं, जैसे-राजस्थान के अरावली पहाड़, मध्य प्रदेश में विंध्याचल पहाड़, सतपुड़ा, बिहार में कैमूर, झारखंड में छोटानागपुर पठार, उत्तर-पूर्व प्रांतों के नागालैंड, मेघालय, मिजोरम आदि के पहाड़ों और अरुणाचल और पश्चिम उत्तराखंड के
पहाड़ों में। कुल आदिवासी संख्या में 55 प्रतिशत
पहाड़ों में और 44 प्रतिशत पड़ोस के जंगल और पहाड़ी
इलाकों में बसे हैं।” सिर्फ झारखंड में 32 प्रजातियों
का जनजातीय समाज रहता है, जिनके बीच उराँव जनजाति का इतिहास
बहुत ही समृद्ध है। यह द्रविड़ प्रजाति की जनजाति है। डॉ. रामकुमार तिवारी ने लिखा
है- “उराँव जनजाति का विस्तार झारखंड के बाहर भी है, किन्तु झारखंड के पश्चिमी भाग में अत्यधिक संकेंद्रण है- लोहरदगा, राँची, सिमडेगा, लातेहार, पलामू, गढ़वा के साथ-साथ गुमला में भी इनकी संख्या अत्यधिक वितरित
है।”
झारखंड में उराँव जनजाति का आगमन :
झारखंड में उराँव जनजाति के आगमन का
इतिहास अनुसंधाताओं के बीच चर्चा का विषय रहा है। इतिहास में इस बात के संकेत
मिलते हैं कि उराँव लोग प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में थे। मिखाएल कुजूर ने लिखा
है- “उराँव लोगों की कहानी सिंधु घाटी से आरम्भ होती है, जहाँ सात नदियाँ बहती थीं और जहाँ उनके पूर्वज सुखपूर्वक
निवास करते थे। दूसरी जातियों ने आकर उनको वहाँ से भगा दिया। ये भागकर गंगा-यमुना
के कछार में जा बसे। दूसरी जातियों ने यहाँ पर भी चैन से नहीं रहने दिया। तब ये
लोग गंगा-यमुना के कछार को छोड़कर रोहतास के पठार में जा बसे।”
स्पष्ट है कि सिंधु घाटी सभ्यता में
हड़प्पा-काल से उराँव जनजाति का इतिहास प्रारम्भ होता है। महली लिवीन्स तिर्की के
अनुसार- “हड़प्पा में सिंधु सभ्यता काल 2500-2000 ई. पू. में ऐसी भाषा बोली जाती थी, जो वर्तमान
कुडुख भाषा के बहुत ही निकट थी। इससे यह अतिसंभव है कि उराँवों के पुरखे हड़प्पा
में रहते थे।”
इस हड़प्पा-काल में उराँव जनजाति के
अस्तित्व का पता चलने से उराँव समाज के इतिहास की प्राचीनता स्पष्ट होती है। उराँव
लोगों की प्राचीनता की पुष्टि इस जनजाति की संस्कृति और संस्कार गीतों से होती है।
ये यहाँ अच्छी तरह विकसित थे। पंजाब की पाँचों नदियाँ इस क्षेत्र से होकर गुजरती
थीं। इसलिए यहाँ की जमीन उपजाऊ थी। ये यहीं फूले-फले और विकसित हुए। ये एक अच्छे
कृषक थे। बाहर से आर्य लोग हिमालय की घाटियों को पार कर आए। आर्यों और यहाँ के
रहने वाले आदिवासियों के बीच भीषण लड़ाई हुई, इन लड़ाइयों
में यहाँ के आदिवासियों की करारी हार हो गई। इनकी अपनी विकसित, उपजाऊ, भूमि और घर-द्वार को
छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में द्रविड़ और उराँव
साथ-साथ रहते थे।
उराँव का असली नाम कुडुख है। ये यहाँ
से भागकर कुडुख क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में बसे। यहाँ पर बहुत दिनों तक इनका राज्य
था। महाभारत की लड़ाई में हार के बाद इनको इस क्षेत्र से भी भागना पड़ा। द्रविड़
भागकर समुद्री किनारे-किनारे होते हुए कई क्षेत्रों को पार कर वर्तमान तमिल भूमि
में आ बसे। दक्षिण भारत की भाषाओं से मुंडारी भाषा मिलती-जुलती है। आर्यों से
लड़ाई के बाद उराँवों का वास स्थान कुरुक्षेत्र (कुडुख क्षेत्र) था। महाभारत की
लड़ाई में पराजित होने पर ये भी समुद्री तट होते हुए कुरुक्षेत्र में आ बसे।
द्रविड़ और कुडुख पुनः दक्षिण भारत में मिल गए। लड़ाई के कारण इनको वहाँ से भागना
पड़ा। नर्मदा, यमुना और गंगा नदियों को पार कर आजमगढ़
क्षेत्र में इन्होंने अपनी राजधानी बनाई। इसी समय इनकी राजधानी हरदी नगर और
पीपरागढ़ में थी। इस प्रकार दर-दर भटकते हुए गंगा के निचले भाग के दीघा घाट में
पटना के पास इन्होंने इस नदी को पार किया। इनका पड़ाव पटना और शाहाबाद क्षेत्र में
कर्मनाशा नदी तक रहा। सोन और गंगा की समतल भूमि अत्यंत उपजाऊ थी। उस समय वर्तमान
रोहतास जिले में इनकी राजधानी रोहतासगढ़ में थी। बहुत दिनों तक रहने के बाद
दुश्मनों से हार खाने से इनको रोहतासगढ़ का किला भी छोड़ना पड़ा। इसके बाद ही
उराँव लोग छोटानागपुर के पठार में आए।
रोहतासगढ़ किले के नीचे बगल में सोन
नदी बहती है, यहीं के शासन के अधीन ये शाहाबाद, आरा, भभुआ और पटना की समतल और उपजाऊ
भूमि में खेती-बारी करते थे। शुरू से ही ये एक अच्छे और कुशल कृषक थे। पहले से और
रोहतासगढ़ के शासनकाल तक ये उरागन ठाकुर कहलाते थे। इसी उरागन ठाकुर से कुडुख जाति
का नाम उराँव पड़ा। दूसरी-दूसरी जाति के लोग इन्हें उराँव कहने लगे। इनकी लड़ाई
राजे-महाराजाओं से होती रही। उराँव रोहतासगढ़ में कुशल शासक थे। ये अपने आप में
आत्मनिर्भर थे। उराँव गाँवों और राज्य में पंचायत और पड़हा प्रणाली के आधार पर
शासन चलता था। हरेक उराँव अपने आप में स्वालंबी था। गाँव में कृषि कार्य के लिए
फाल,
कुदाली, गईता, खुरपी, टांगी, बसुला, हंसुआ, छुरी, तीर और लोहे के
औजारों को बनाने के लिए ये लोहार को रखे हुए थे। कपड़ा बुनने के लिए चीक बड़ाईक, स्वांसी या पाँड थे। गाय-बैलों को चराने के लिए अहीर बसाए
गए थे। घड़ा बनाने के लिए कुम्हार थे। शादी-विवाह में ढोल, नगाड़ा और अन्य बाजाओं को बजाने के लिए गोड़ाईत लोग रहते
थे। सूप,
बढ़नी, कुमनी तथा कंघी बनाने
के लिए महली, तूरी या ओड रखे गए थे। उराँव अपने
खेतीहर थे। इन सभी सेवा करने वालों को उराँव किसान फसल में से साल में पूर्व
निर्धारित अनाज देते थे। इस प्रकार हरेक गाँव आत्मनिर्भर था। अभी झारखंड में ये
सभी लोग इनके साथ हैं। युद्धों में उराँवों में कुछ योद्धा मूल जनसमूह से कटकर ईसा
पूर्व 492-460 के बीच मगध के राजा अजातशत्रु के शासनकाल में जाकर जंगलों
और पहाड़ों में छिप गए और जाकर संताल परगना के पहाड़ों में बस गए। ये हैं संताल
परगना के माल पहाड़िया। उराँव भाषा में माल का अर्थ होता है पहलवान योद्धा-भुसूर
भुंड-युद्ध करने वाला पहलवान। माल पहाड़ियों की भाषा और रीति-रिवाज उराँवों से
मिलते-जुलते हैं। उराँवों के योद्धा वर्ग के अलग होने के बाद भी ये बहुत दिनों तक
रोहतासगढ़ में कब्जा जमाए हुए थे। उराँव समुदाय के बीच शिकार खेलने की प्रथा थी, जो अब भी कायम है। शिकार में बूढ़ों और बीमार लोगों को
छोड़कर सभी पुरुष जंगलों में पंद्रह-बीस या एक महीने तक के लिए बाहर निकल जाते थे।
पुरुषों की अनुपस्थिति में औरतें पुरुषों का भेष बनाकर किले की रखवाली करती थीं।
कुछ औरतें किले की सहरदों में जाकर दुश्मनों को देखा करती थीं। कुछ घटना घटने या
दुश्मनों की हरकतों को देखकर ये अखाड़े में एकत्रित औरतों को इसकी सूचना देती थीं।
गाँव की सभी औरतें मर्दों का भेष बनाकर नाच-गान करती हुई किले की पहरेदारी करती
थीं। यह प्रथा भी उन जगहों में है, जहाँ-जहाँ
जंगल मौजूद हैं।
इसी बिशु शिकार के अवसर पर मर्दों की
अनुपस्थिति में दुश्मनों ने किले पर चढ़ाई कर दी थी। किले की औरतें मर्दों के भेष
में किले की रखवाली कर रही थीं। उराँव आदिवासी औरतें कर्मठ, साहसी और हठी-कठी होती हैं। इन्होंने सिनगी दई, चम्पू दई और ली दई की अगुवाई में शत्रुओं को लाठी, तीन-धनुष, भाला, बलुवा, टाँगी और ढेलफोरों से
मारकर मुँहतोड़ जवाब दिया। शत्रु ने एक-एक के बाद तीन बार लगातार चढ़ाई की। तीनों
बार इन्होंने दुश्मनों को सोन, गंगा और कर्मनाश के
पार मार भगाया। इसी की यादगारी में उराँव औरतें माथे पर तीन गोदना गुदवाती हैं। एक
माथे की ललाट में और बाकी दो, दोनों कनपटियों में
रहती हैं। इन जीतों की यादगारी में, धरोहर के रूप
में प्रत्येक बारह वर्षों के अंतराल में ये मर्दों का भेष बनाकर जनी-शिकार के लिए
निकल पड़ती हैं। इस समय इनका पहनावा और शेष मर्दों की तरह होती है ताकि लोग यह जान
नहीं सकें कि ये औरतें हैं। दई का अर्थ उराँव में बड़ी दीदी (बड़ी बहन) होती है।
किले में दूध देने वाली ग्वालिन लुन्दरी ने बतलाया कि लड़ाई में शामिल सभी औरतें
हैं। इनमें एक भी मर्द नहीं हैं। सभी मर्द बिशु-शिकार के लिए निकले हुए हैं। ये
प्रत्येक वर्ष इसी अवसर पर विशु-शिकार खेलने के लिए जाते हैं। यह भेद जानकर
दुश्मनों ने दो गुना जोश के साथ पूरी तैयारी करके विशु-शिकार के अवसर पर किले पर
पुनः आक्रमण किया। इस चौथी लड़ाई में इनको हार खानी पड़ी। पुराने जमाने में किले
की जीत की राज्य की जीत होती थी। ये बाल-बच्चों और जरूरी माल-असबाबों को लेकर
रोहतासगढ़ किले को खाली कर शिकार खेलने वाले पतियों के पास गई और उनके साथ में
पलामू जिले की बंजर भूमि को पार करते हुए ये आगे बढ़ते गए और अमझरिया नदी के
आस-पास के क्षेत्रों में ठहर गए। आगे बढ़े नहीं क्योंकि राँची जिले के सुतियाम्बे
में मदरा मुंडा का गढ़ था। मुंडाओं की जनसंख्या गढ़ के चारों ओर फैली हुई थी, इसलिए उराँवों का पड़ाव महुवा डांड, लातेहार, चन्दवा और राँची जिले
के सरहद कुडू तक था।
उराँव के पीछे-पीछे चेरो और खेरवार
जंगलों में प्रवेश कर पलामू और हजारीबाग के जंगलों में छिप गए। खेरवार रामगढ़ और
बरही क्षेत्र में फैल गए। चेरो राजा मेदनी राय का किला पलामू में है और खेरवार
(खरवार) राजा कामाख्या नारायण का गढ़ रामगढ़ में था। बाद में गढ़ बरही क्षेत्र के
पदमा में चला गया। कोडरमा घाटी होते हुए संताल इस छोटानागपुर में आए, जो संताल परगना, हजारीबाग, गिरीडीह और सिंहभूम जिले के पूर्वी क्षेत्र में फैले हुए
हैं। इनके अलावा भागलपुर, पूर्णिया, सहरसा, पश्चिम बंगाल में भी
इनकी जनसंख्या है। जनजातियों में इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा है।
सिंधु घाटी से झारखंड तक उराँव लोगों
की यात्रा का संकेत इस कुडुख चाला गीत में है-
“नाम्हय पुरखर रहेचर रे,
रोहतास पटेना नू रहेचर
सिंध घाटीती इत्तियर,
गंगा-यमुना बरचर।
पटेनाली इत्तियर,
रोहितास नू उक्कियर॥”
उराँव लोगों ने झारखंड में जंगल-झाड़
साफ कर खेती योग्य जमीन बनाई और यहाँ बस गए। यहाँ सदियों तक अपनी स्वाभाविक
जीवनशैली को जीते हुए वे अपनी विशिष्ट संस्कृति में बढ़ने लगे। लेकिन यहाँ भी दूसरी
जातियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
उराँव लोगों का पड़ाव अमझरिया नदी के
चारों ओर लातेहार, चन्दवा और कुडू तक था। अमझरिया
नदी का नाम उराँव भाषा में है। अम्म का अर्थ होता है पानी और झरिया का अर्थ है
झरना,
अर्थात् पानी का स्रोत। मुंडाओं ने कुंदुख (उराँव) जाति के
पड़ाव का नाम कुडुख से कुदू रखा। कुडू तक मुंडाओं की आबादी थी, इसीलिए ये आगे बढ़ नहीं सकते थे। धीरे-धीरे उराँवों ने
मुंडाओं से संपर्क किया। मुंडाओं ने सौहार्दपूर्ण विचार रखा और ये जंगलों में आगे
की ओर बढ़ गए। मुंडाओं की आबादी बुंडू, सोनाहातू, अडुकी, तमाड़, बंगाल के कुछ भागों, जमशेदपुर, खूँटी, बन्दगाँव, कर्रा, मुरहू, रनियाँ, बानो, कोलेबिरा और छिटपुट लापूंग के क्षेत्रों में फैल गई।
मुंडाओं के आगे बढ़ने से उराँव दक्षिणी कोयल नदी और उनके क्षेत्रों की उपजाऊ भूमि
में बस गए। ये शुरू से ही अच्छे कृषक थे, इसीलिए जंगलों
को काटकर खेती के लिए इन्होंने खेत बनाए। ये राँची जिले की उपजाऊ भूमि के कुडू, लोहरदगा, भंडरा, मांडर, रातू, बेड़ो, लापुंग, राँची के पश्चिमी हिस्से और सिसई के क्षेत्रों में फैल गए।
पुराने राँची जिले के उराँव क्षेत्र के कुछ गाँवों के नाम मुंडारी भाषा में हैं, जो मुंडाओं के वास का साक्षी हैं। अभी भी बीच में उराँवों
के साथ छिट-पुट संख्या में मुंडाओं की आबादी है, जो प्रायः गाँव के पाहन हैं। कुछ लोग कुडू और चन्दवा क्षेत्र से लोहरदगा, गुमला, चैनपुर, महुवाडांड, डुमरी होते हुए मध्य
प्रदेश के जशपुर, सुरगुजा, अम्बिकापुर, रायगढ़ और
विलासपुर के भूभागों में बस गए हैं। कुछ जनसंख्या सिमडेगा होते हुए उड़ीसा के
राउरकेला,
सुन्दरगढ़, संवलपुर और झारसुगड़ा
के क्षेत्रों में फैल गई है।
इसमें संदेह नहीं कि झारखंड में उराँव
जनजाति का आगमन असुर, मुंडा और चेरो-खरवार के बाद ही
हुआ। डॉ. भुनेश्वर अनुज के अनुसार- “उराँवों का छोटानागपुर में आगमन 4वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। ये पठानों के आक्रमण तथा
उनसे पराजित होने के बाद भागकर पलामू में आए।” लेकिन वास्तव में उराँव लोग इसके
पहले से झारखंड में थे। जैसे, नागवंशावली में
उल्लेख है कि पहली शताब्दी के मध्य में फणिमुकुट राय के राज्याभिषेक के समय कुछ
उराँव भी वहाँ थे। मुगल बादशाह अकबर 585 में इस
क्षेत्र में आया। उस समय तो उराँवों की संख्या विशाल हो गई थी। मुगल शासन के अंतिम
वर्षों में समूचे झारखंड का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में आ गया, जब शाह आलम ने बिहार, बंगाल और
उड़ीसा की दीवानी 12 अगस्त 1765 को कंपनी के नाम कर दी। यहाँ से उराँव लोगों के साथ
अंग्रेजी साम्राज्य के संघर्ष की कहानी आरंभ हुई।
अंग्रेज इस देश में व्यापार करने आए थे, लेकिन मुगल बादशाह की कमजोरियों का फायदा उठाकर वे शासक बन
बैठे। उन्होंने कई क्षेत्रों में चाय की खेती आरंभ की। इस कार्य के लिए झारखंड से
उराँव मजदूरों को अंग्रेज नेपाल की तराई और असम तक ले गए। वास्तविकता तो यह है कि
झारखंड के उराँव कर्मठ, मेहनती, ईमानदार तथा मिलजुल कर काम करने वाले होते हैं, इसलिए अंग्रेजों ने बंगाल के सिलीगुड़ी, जलपाईगुड़ी, हसिमारा, बीचबगान और आसाम-भूटान के चाय बगानों में इन्हें काम करने
के लिए बुलाया। ये इन्हीं जगहों में बस गए हैं। काम करने के लिए इन्हें
अंडमान-निकोबार भी भेजा। लाइनें बनने लगी तब ये अपने साबिक जगहों को छोड़कर सिंहभूम
के चक्रधरपुर, चाईबासा और जगरनाथपुर तथा मनोहरपुर में
बस गए हैं। सिंहभूम 'हो' आदिवासियों का क्षेत्र है। कुछ लोग संथाल परगना में भी बसे हुए हैं। यहाँ
संथालों की आबादी है। रोहतासगढ़ छोड़ते समय कुछ उराँव लोग रोहतासगढ़ के जंगलों में
छूट गए। ये वहीं रह गए हैं। अघौरा क्षेत्र में भी इनकी जनसंख्या है। ये लड़ाई के
समय अघौरा पहाड़ों के जंगलों में छिप गए।
जब धर्म प्रचार करने के लिए मिशनरी
छोटानागपुर के उराँव क्षेत्र में आए, तब इन्होंने
कुछ उराँवों को ईसाई बनाकर इन्हें काम करने या धर्म प्रचार के लिए विभिन्न जगहों
में अपने क्षेत्र में से बाहर ले गए। ये जहाँ गए वहीं बस गए। अब तो ये पादरी, सिस्टर और मदर बनकर विदेशों में भी बस गए हैं।
भारत के स्वतंत्र होने पर आदिवासियों
को आरक्षण मिला। इन्हें बड़े-बड़े शहरों में नौकरियाँ मिलीं। कुछ लोग जहाँ
नौकरियाँ मिलीं वहीं बस गए, इसलिए उनकी आबादी पटना, दिल्ली और भारत के बड़े शहरों में है। ये वहीं बसते जा रहे
हैं। अभी बिचौलिये छोटानागपुर की कुंवारी लड़कियों को बहला-फुसला कर दिल्ली में
नौकरी देने के बहाने ले जाकर उन्हें जात-पात के लोगों को बेच दे रहे हैं। इन्हें
नौकरानियों के रूप में काम करने के लिए विवश कर देते हैं। अभी दिल्ली में उराँवों
की जनसंख्या काफी हो गई है।
झारखंड में उद्योगों के विकास और
शिक्षा के विस्तार के कारण उराँव जनजाति की जीवनशैली इन सारी असंगतियों के बावजूद
बदलती गई है। विशेषतः विभिन्न ईसाई मिशनरियों ने झारखंड की अन्य जनजातियों के साथ
ही उराँव जनजाति को भी विकास और शिक्षा का प्रकाश दिया। इतिहास बताता है कि इस
जनजाति का नाम पहले “कुडुख” ही था। एक मुंडा लोक-कथा से ज्ञात होता है कि 'कुडुख' नाम को बदलकर 'उराँव' नाम मुंडा लोगों ने
दिया है। कहा जाता है कि कुडुख लोग पीने और दवा तथा तरकारी बनाने के लिए 2 मन पानी लायक घड़े में बासी पानी रखा करते थे। यह जितना पुराना
होता उतना ही दवा के लिए अच्छा समझा जाता था।
इस बीच घटना ऐसी हुई कि पड़ोस में रहने
वाली मुसलमान बच्ची उसी घड़े में गिरकर मर गई, तो कुडुख
लोगों ने उसे चुपचाप गोबर गड्ढे में दफना दिया। लेकिन साल भर में शरीर सड़ चुका था
और खेतों में खाद डाल दिया गया। इस समय लड़की को पहनाया गया 'बेरा' (हाथ में पहनने का
कंगन) खेत के खाद में पाया गया और कुडुख लोगों को दोषी मानकर मुसलमानों ने लड़ाई
छेड़ दी।
इस अवसर पर मुंडा लोग नदी के किनारे 'बारपहरी' की पूजा मना रहे थे।
वे सभी अपने शरीर को विभिन्न रंगों से रंगे हुए थे और पूजा कर भोज के लिए खाना पका
रहे थे। इसी बीच कुडुख मुसलमानों के डर से भागकर इनके दल में आ घुसे। मुंडाओं ने
उन्हें बचाने के लिए भोजन पकाने में लगा दिया। मुसलमान कुडुख लोगों की खोज करने
लगे और पूछने लगे- “कुडुख लोग इधर ही भाग आए हैं, वे कौन हैं? हमें बताओ।"
मुंडा, जो अनेक प्रकार के रंगों से रंगे हुए थे, कुडुख लोगों
को बचाने के ख्याल से मुसलमानों से पूछा- 'कुडुख किस रंग
के हैं?
रंग या ऊ रंग?' मुंडाओं की
भाषा न समझ सकने के कारण मुसलमान वापस चले गए। तब मजाक में मुंडा लोग कुडुखों को 'अरे ईरंग! अरे ऊरंग!' कहकर पुकारने
लगे। बाद में धीरे-धीरे यही “ऊरंग” नाम में प्रचलित हुआ। आधुनिक समय में
जमीनी-खतियानों में 'उराँव' नाम ही दर्ज किया जाता है ।
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