उराँव जनजाति: इतिहास, संस्कृति और आधुनिक संघर्ष
भूमिका
भारत की जनजातियाँ इस देश की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इनमें से उराँव जनजाति अपनी अनूठी संस्कृति, परंपराओं और संघर्षों के लिए जानी जाती है। यह पुस्तक उराँव समाज के इतिहास, भाषा, परंपराओं, वीरता, ब्रिटिश शासन के प्रभाव और आधुनिक चुनौतियों को विस्तार से प्रस्तुत करती है।
अध्याय 1: उराँव जनजाति का परिचय
उराँव जनजाति कौन हैं?
उराँव जनजाति भारत की प्रमुख द्रविड़ जनजातियों में से एक है। इनकी मातृभाषा "कुडुख" है। यह जनजाति मुख्य रूप से झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम में पाई जाती है।
जनसंख्या और बसावट
- झारखंड में इनकी सबसे अधिक जनसंख्या है।
- बिहार, मध्य प्रदेश, असम और उड़ीसा में भी इनकी बड़ी संख्या पाई जाती है।
- कुछ उराँव नेपाल, अंडमान और विदेशों में भी बस चुके हैं।
अध्याय 2: उराँव जनजाति का प्राचीन इतिहास
सिंधु घाटी से यात्रा
इतिहासकारों के अनुसार, उराँव जनजाति के पूर्वज सिंधु घाटी सभ्यता में रहते थे। जब बाहरी आक्रमणकारी आए, तो उन्हें विस्थापित कर दिया गया और वे गंगा-यमुना के किनारे बस गए।
रोहतासगढ़ का वैभव
- उराँव लोग रोहतासगढ़ (बिहार) में एक संगठित राज्य के रूप में स्थापित हुए।
- ये कुशल कृषक और योद्धा थे।
- लेकिन बाहरी हमलों के कारण उन्हें छोटानागपुर पठार (झारखंड) की ओर पलायन करना पड़ा।
अध्याय 3: 'कुडुख' से 'उराँव' तक – नामकरण की कहानी
"कुडुख" नाम ही उराँव जनजाति का मूल नाम था।
एक लोककथा के अनुसार –
- जब उराँव लोग मुंडा जनजाति के बीच शरण लिए हुए थे, तब कुछ आक्रमणकारी उनकी तलाश में आए।
- मुंडाओं ने मजाक में कहा – "ऊ रंग?" यानी "कौन सा रंग?"
- यही शब्द "ऊरंग" → "उराँव" में बदल गया और प्रचलित हो गया।
अध्याय 4: रोहतासगढ़ की वीरांगनाएँ
जब उराँव पुरुष विशु-शिकार के लिए जंगलों में गए हुए थे, तब दुश्मनों ने रोहतासगढ़ किले पर हमला कर दिया।
उराँव महिलाओं की वीरता
- सिनगी दई, चम्पू दई और ली दई जैसी वीर महिलाओं ने पुरुषों के भेष में युद्ध लड़ा।
- तीन बार दुश्मनों को हराया, लेकिन चौथी बार पराजित होकर किला छोड़ना पड़ा।
- इस युद्ध की याद में उराँव महिलाएँ माथे और कनपटियों पर तीन गोदना (टैटू) गुदवाती हैं।
- हर 12 साल में "जनी-शिकार" उत्सव मनाया जाता है, जिसमें महिलाएँ पुरुषों की तरह शिकार खेलती हैं।
अध्याय 5: उराँव जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर
मुख्य त्योहार और नृत्य
उराँव जनजाति में अनेक पर्व-त्योहार और नृत्य प्रचलित हैं, जैसे –
- सरहुल – वसंत ऋतु का पर्व
- करमा पर्व – प्रकृति पूजा
- जनी-शिकार – महिलाओं का वीरता उत्सव
- धुमकच – पारंपरिक नृत्य
🎵 झूमर और करमा नृत्य उराँव समाज के प्रमुख नृत्य हैं।
पारंपरिक चिकित्सा और जड़ी-बूटियाँ
- बुखार के लिए गुड़हल और तुलसी।
- घाव के लिए हरड़ और हल्दी।
- पेट की समस्याओं के लिए भुई आंवला और बेल।
अध्याय 6: ब्रिटिश शासन और उराँव समाज
ब्रिटिश शासन का प्रभाव
- जमींदारी प्रथा – उराँवों की जमीन हड़प ली गई और वे बंधुआ मजदूर बना दिए गए।
- चाय बागानों में श्रम – उराँवों को असम, दार्जिलिंग और नेपाल के चाय बागानों में ले जाया गया।
- मिशनरियों का प्रभाव – ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और धर्म परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई।
हालांकि, इससे उराँव समाज में शिक्षा और जागरूकता बढ़ी।
अध्याय 7: आधुनिक समय में उराँव जनजाति की चुनौतियाँ
शिक्षा और रोजगार
- आरक्षण और सरकारी योजनाओं के कारण उराँव युवा शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आगे बढ़ रहे हैं।
- लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की कमी अब भी एक बड़ी समस्या है।
विस्थापन और शोषण
- बड़े उद्योगों और खनन कंपनियों के कारण उराँव समाज अपनी पारंपरिक जमीन से विस्थापित हो रहा है।
- दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में उराँव लड़कियों की तस्करी एक गंभीर मुद्दा बन चुका है।
भाषा और संस्कृति का क्षरण
- आधुनिकता के प्रभाव में कुडुख भाषा और पारंपरिक रीति-रिवाज धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं।
- हालांकि, अब कई संगठन कुडुख भाषा को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास कर रहे हैं।
अध्याय 8: उराँव युवाओं के लिए संदेश
अगर उराँव समाज को आगे बढ़ाना है, तो युवाओं को चाहिए कि वे –
- अपनी मातृभाषा कुडुख को बचाएँ और बोलें।
- शिक्षा और रोजगार के अवसरों को अपनाएँ, लेकिन अपनी जड़ों से न कटें।
- संगठित होकर उराँव समाज की समस्याओं को हल करें।
निष्कर्ष
उराँव जनजाति का इतिहास संघर्ष, वीरता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। सिंधु घाटी से झारखंड तक की उनकी यात्रा, रोहतासगढ़ की वीर नारियों की कहानी और आधुनिक चुनौतियों से जूझता उनका समाज – ये सभी बातें हमें बताती हैं कि उराँव समुदाय ने समय के साथ खुद को ढाला और आगे बढ़ने की कोशिश की।
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