उरांव जनजाति में बच्चों के नामकरण की एक अनोखी और धार्मिक प्रक्रिया प्रचलित है, जिसे 'नामे-पिंजना' कहा जाता है। इस परंपरा का उद्देश्य नवजात शिशु को अदृश्य शक्तियों और पूर्वजों की सहमति के साथ एक विशिष्ट नाम प्रदान करना है। यह प्रक्रिया न केवल धार्मिक महत्व रखती है बल्कि समुदाय की सांस्कृतिक विरासत और आस्थाओं को भी प्रकट करती है।
नामकरण संस्कार का समय
जब कोई शिशु छः महीने या अधिक उम्र का हो जाता है, तब उसके माता-पिता इस संस्कार की तैयारी करते हैं। हालांकि, यह प्रक्रिया शिशु के जन्म के छः महीने से एक वर्ष के भीतर पूरी कर ली जाती है। इस समय तक बच्चे को उस दिन के नाम से बुलाया जाता है, जिस दिन उसका जन्म हुआ था। उदाहरण के लिए:
सोमवार: बालक को 'सेमरा' और बालिका को 'सौमारी' कहा जाता है।
मंगलवार: 'मंगरा' और 'मंगरी'।
गुरुवार: 'विरसा' और 'बिरसी'।
शुक्रवार: 'सुकरा' और 'सुकरी'।
शनिवार: 'शनीधरवा' और 'सनीचरी'।
पर्व के दिनों में जन्मे बच्चे पर्व के नाम से जाने जाते हैं, जैसे 'करमा-करनी', 'फगुआ-फगुनी'।
नामे-पिंजना की धार्मिक प्रक्रिया
नामकरण समारोह में एक विशेष धार्मिक विधि का पालन किया जाता है। इस प्रक्रिया में गाँव के गोड़इत (समाज के धार्मिक कार्यों का प्रमुख) और पाहन (पुजारी) मुख्य भूमिका निभाते हैं।
1. केश मुंडन और बाल प्रवाहित करना:
शिशु के सिर के बालों को मुंडन कर नदी में प्रवाहित किया जाता है। उरांव जनजाति का यह विश्वास है कि शिशु के बाल नदी में मिलकर ईश्वरीय संकेत देते हैं। उनका मानना है कि प्रवाहित बाल भविष्य में शिशु के वैवाहिक साथी के बालों से मिलकर उनके विवाह का निर्णय करते हैं। यह प्रक्रिया उनके जीवन में ईश्वरीय योजना की झलक दिखाती है।
2. चावल के दानों का उपयोग:
गोड़इत एक बड़े पत्ते का दोना पानी से भरकर लाता है। फिर गाँव के पंच या वयोवृद्ध व्यक्ति तीन चावल के दाने गिनकर पानी में डालते हैं। इस समय शिशु के माता-पिता के मृत पूर्वजों का नाम लिया जाता है।
यदि चावल के दाने पानी में मिलते हैं, तो समझा जाता है कि अदृश्य शक्तियाँ उस पूर्वज के नाम पर सहमति व्यक्त कर रही हैं।
यदि दाने नहीं मिलते और डूब जाते हैं, तो प्रक्रिया दोहराई जाती है।
इस प्रकार, जिस पूर्वज के नाम पर चावल के दाने मिलते हैं, शिशु का नाम उसी नाम पर रखा जाता है।
3. घोषणा और गुप्तता:
नाम घोषित होने के बाद गोड़इत की पत्नी शिशु को हल्दी-तेल लगाकर स्नान कराती है और उसे नए कपड़े पहनाए जाते हैं। इस प्रक्रिया के लिए गोड़इत को अनाज या पैसे दिए जाते हैं।
शिशु का यह नाम प्रारंभिक दिनों तक गुप्त रखा जाता है ताकि शिशु को बुरी नजर और जादू-टोने से बचाया जा सके।
जूड़ो-एड़ा (केश बंधन): किशोरावस्था में प्रवेश की परंपरा
जूड़ो-एड़ा उरांव जनजाति का एक विशेष संस्कार है, जो शिशु के बचपन की समाप्ति और किशोरावस्था में प्रवेश का प्रतीक है। यह संस्कार माघ पूर्णिमा के अगले दिन किया जाता है।
संस्कार की प्रक्रिया
1. सामूहिक आयोजन:
गाँव के सभी पुरुष, महिलाएँ, और बच्चे महतो या पंच के घर एकत्रित होते हैं। प्रत्येक परिवार धान का एक मोढ़ा लेकर आता है।
2. तेल और कंघी:
लड़के और लड़कियों के बालों में तेल लगाया जाता है और उनके बालों को कंघी से बाँधकर गाँठ लगाई जाती है।
3. समाज की स्वीकृति:
इस संस्कार के बाद लड़कियों को विवाह योग्य और लड़कों को घुमकुड़िया (युवाओं के प्रशिक्षण केंद्र) में प्रवेश का पात्र माना जाता है।
जोख-एड़पा (घुमकुड़िया में प्रवेश)
घुमकुड़िया उरांव जनजाति की एक अनोखी संस्था है, जहाँ युवाओं को व्यावहारिक, धार्मिक, और सामाजिक शिक्षा दी जाती है।
प्रवेश की प्रक्रिया
1. शिकार और निर्णय:
माघ शुक्ल पक्ष के पहले दिन घुमकुड़िया के पुराने सदस्य शिकार पर जाते हैं। शिकार से लौटने के बाद वे गाँव के किशोरों का चयन करते हैं।
2. सदस्यता की स्वीकृति:
चयनित किशोरों के घर मांस का एक पैकेट भेजा जाता है। इस मांस को खाने के बाद किशोर घुमकुड़िया का सदस्य बन जाता है।
3. योगदान और प्रशिक्षण:
नए सदस्यों के माता-पिता घुमकुड़िया के संचालन के लिए अनाज, तेल, और लकड़ी का योगदान करते हैं। यहाँ युवाओं को जीवन के हर क्षेत्र में निपुणता सिखाई जाती है।
उरांव जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर
इन संस्कारों के माध्यम से उरांव जनजाति अपनी सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं को जीवंत रखती है। ये संस्कार न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं बल्कि सामुदायिक जुड़ाव और पारिवारिक मूल्यों को भी सुदृढ़ करते हैं।
उरांव जनजाति की यह विशिष्ट परंपरा हमारे समृद्ध आदिवासी समाज की एक झलक प्रस्तुत करती है, जो आज भी हमें उनकी सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करने की प्रेरणा देती है।
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